शुभी के प्यारे पहाड़ी -2: इस बार तो वो सबसे पवित्र प्यारे पहाडी
देवभूमि में आपका स्वागत है:
चार धाम में हमारे देव देवियों वापस आ रहे हैं अपने शीतकाल के मंदिरो से |
केदारनाथ | 06 May 2022 | 26 Oct 2022 |
बदरीनाथ | 08 May 2022 | Nov 2022 |
प्स गंगोत्री | 03 May 2022 | 25 Oct 2022 |
कुछ लॉकडाउन कुछ मेरी किस्मत से मैं उत्तराखंड में बस गई हु। मेरे जैसी कट्टर नास्तिक के लिए उत्तराखंड हर पल आश्चर्य से भरा है: उत्तराखंड (देवभूमि ही क्यों नहीं नाम दे दिया गया ?) यहां इसिहास ही नहीं हर कदम पर धार्मिक कथाये: महाभारत और रामायण: वेद पुराण और धार्मिक दन्त कथाओ से गूंजती है: हर पेड़ हर पर्वत नदी नहर किसी न किसी देव या देवी से जुड़ा है। सब कुछ जो हजारों पुस्तक में लिखी जा सकती है। … एक लम्बी पेंचीदा कहानी बनती है… सब कुछ एक सम्पूर्ण सत्य जैसा लगता है। मेरे धर्म विहीन हिर्दय कैसे बस गये इतने सारे महान पात्र !
हर घटना हर देव, देवी ऐतिहासिक योद्धा, ज्ञानी, नायिकाओं को जानने और समझने की मेरी भूख मिटती ही नहीं है। अनुब पूरी तरह से मोहित हूँ उन प्राचीन ऋषि मुनि लेखकों के प्रति: उन्हें हर पहाड़ पथ नदी मौसम की वैज्ञानिक सूचना कैसे थी? चार धाम यात्री परम्परागत यमुनोत्री से शुरू होती है।
फिर गंगोत्री फिर केदारनाथ धाम और अंत में बदरीनाथ। ऐसा कहते है की बदरीनाथ यात्रा केदारनाथ के बाद इसलिये करते है क्योँकि विष्णु आपसे सुचना चाहते है की आप की क्या गपशप हुई उनके परम मित्र शिवजी से।
चलिए तो जानते हैं कुछ कुछ उन महान देव देवियों, उनके धाम और उनके सफर के बारे में:
माँ यमुना
यमुना नदी को हम पवित्र देवी मानते हैं और ये गंगा माँ की सबसे बड़ी सहायक नदी है। इन्हें प्राचीन काल में यामी कहा जाता था बाद के साहित्य में कालिंदी। यमुना के पिता सूर्य भगवान हैं और माँ संजना जो बादलो की देवी है। जब अपने पति के तेज धूप को ना सह सकी और आंखें बंद कर ली तो सूर्य नाराजगी में कह दिए कि उनके बेटे को यम (संयम) नाम से जाना जाएगा। यम की जुड़वा बहन का नाम यमुना होगा लेकिन उनके आशीर्वाद से वह पवित्र पूजनीय देवी के रूप में हरदम याद रहेगी। ये जुड़वा भाई बहन यम यामी एक दिव्य जोड़ी हैं जो जनम मरण से जुड़े हैं: जब मृत्यु के देवता और यामी जीवन की देवी जिन्होंने यम के लिए ऋग्वेद में स्रोत में बताया कि यमलोक में किस तरह के पेय दिए जाएंगे। हमारे देश में भाई दूज में बहनें यमराज जमुना को याद करती हैं।
यमुनाजी के और भाई जन भी बहुत शानदार है: शनी देव पहला मनुष्य वेवास्वत मनु और जुड़वा दिव्य चिकित्सक अश्विन कुमार। लेकिन सूर्य भगवान की सबसे प्रिय संतान यमुना थी। यमुना विष्णु को पति के रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। विष्णु के अवतार कृष्ण से उनका विवाह हुआ। द्वापर युग के द्वार्कानरेश कृष्ण की 8 प्रमुख पत्नियों में से एक यमुनाजी बनी। नदी के रूप में यमुना और कृष्ण जुड़े हैं। जन्म के बाद वासुदेव ने कृष्ण को लेकर यमुना को पार किया था। कुछ वर्षों बाद जब जहरीला नाग कालिया यमुना में रहने लगा तो कृष्ण ने कालिया को मार डाला। यमुना के चित्र में उन्हें सांवली दिखाया जाता है आपने अपने वाहन कछुए पर हाथ में कलश लिए हुए। या एक सुंदर स्त्री नदी किनारे।
यमुनोत्री शीत धाम: खर्साली समुद्र तल से 7000 फीट ऊपर
शीतकाल में जब यमुनोत्री मंदिर का कपाट 6 महीनों के लिए बंद किया जाता है तो मां यमुना देवी अपने मायके में रहने के लिए खर्साली चली जाती हैं। यहां 1918 में उनकी उत्सव मूर्ति की स्थापना नये मंदिर में की गई। भक्तजन यहां उनकी पूजा करते हैं। खर्साली एक लोकप्रिय पिकनिक की जगह है: सुंदर शांत हिमालय पर्वतीय गॉव जो शनि देव के भव्य मंदिर के लिए भी तीर्थस्थान माना जाता है। इस वक्त पर खर्साली में बहुत हलचल होती है जब यमुनोत्री धाम के लिए यहां भक्त रुकते हैं। यमुनाजयंती के अवसर पर यमुनोत्री धाम के कपाट खुलने की तिथि का निर्णय वहां के पुजारी और कमेटी लेते हैं। अक्षय त्रितीय के पावन दिन ठीक 12:15 को 3 मई यमुना जी का उत्सव डोली खर्साली से यमुनोत्री जाएगी। उनको वहां पहुंचाने उनके भाई शनि देव भी जाते हैं। उनकी डोली में सब तैयारियां होती हैं पुजारियों के संग गांव के लोग मिलकर पूरे गांव को सजाते हैं। यमुनाजी और शनिदेव के मंदिरों को और उनकी डोलिओं को भी कहा जाता है।
गंगा माँ समुद्र तल से 7000 फीट ऊपर
हिंदुओं के लिए गंगा नदी सबसे परम पूजनीय और पवित्र नदी है। और कोई नदी को इतना आदर और भाव नहीं मिलता है। हम उन्हें गंगा मैया कहते हैं। और माना जाता है कि गंगाजल हर पाप धो देता है और मोक्ष दिलाता है। वेद पुराणों में इनका नाम सबसे ज्यादा बार लिखा गया है। भगवान विष्णु ने गरुड़ को गंगा का महत्व समझाते हुए कहा गंगा को देखकर ही हजारों इंसानों के पाप मिट जाते हैं और उसके स्पर्श या ग्रहण से या सिर्फ गंगा नाम के उच्चारण से ही वे पवित्र हो जाते हैं।
गंगा को गोरी और सुंदर स्त्री दर्शाया जाता है। उनके सर पर सफेद ताज होता है और उनका सवार मगरमच्छ या मकर होता है। जब उनके चार हाथ दिखाए जाते हैं तो एक हाथ में कमल दूसरे हाथ में कलश तीसरे में जाप माला और एक हाथ में सब को आशीष देने की मुद्रा होती है।
और गंगा देवी के रूप में वे पवित्रता, स्वास्थ्य और नए साल में खुशी की प्रतीत है।
महाभारत के अनुसार गंगा के प्रति शांतनु है। पार्वती उनकी छोटी बहन है।
जब धरती पर सूखा पड़ा और हजारों लोगों की मोक्ष में बाधा पड़ गया तो अयोध्या नरेश राजा सागर के पोते भगीरथ ने गंगा को धर्ती पर उतारने के लिए ब्रह्म्मा जी की पूजा की। ब्रह्म्मा ने इसके लिए गंगा को धरती पर जाने की अनुमति दे दी। गंगा ने कुछ नाराजगी में ठान लिया कि वह घर्ति पर सब कुछ बहाती हुई उतरेगी। भगीरथ ने गंगा की प्रचण्ड प्रभाव को देखा और भगवान शिव से प्रार्थना किया कि गंगा को संभाल ले। भगीरथ के साथ गंगा चलने लगी और सबसे पहले उन्होंने सूखे सागरों को भरा…. जिन्हें अगस्त्य मुनि ने पीकर खाली कर दिया था। फिर धर्ती को पावन किया और भगीरथ के साठ हजार पूर्वजों को मोक्ष दिला कर उन्हें स्वर्ग भेज दिया। जब गंगा धर्ती पर उतरने लगी तो शिव के सर पर उतरने का सोच लिया लेकिन शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में बांध लिया और सात धाराओं में बांट दिया जिससे वह अलग-अलग बहने लगी बिना अपना प्रचण्ड रूप दिखाये। मुझे लगता है शिव का गंगधर होना पार्वती को अच्छा नहीं लगा होगा।
मुखबा गांव जिला हर्षिल: मां गंगा का शीतकाल का धाम
हर्षिल 2629 मीटर समुद्र तल से ऊपर
भागीरथी नदी के किनारे बसे इस गांव में लोगों की संख्या कम है। हर तरफ बर्फ से ढके ऊंचे पहाड़ और हरियाली है। यह जगह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यही वह स्थान है जहां गंगा देवलोक से पृथ्वी पर उतरी थी। भक्तों की भीड़ सिर्फ गंगोत्री धाम के लिए नहीं : दो और गंगा के मंदिर में भी आते हैं।
गंगोत्री धाम के खुलने की तिथि से 1 दिन पूर्व – भव्य धार्मिक उत्सव के बाद गंगा की डोली को पुजारियां उठाकर मुख़ाबा से निकालते हैं। यहां के लोग बहुत भावुक होकर अपने “गांव की बेटी” को विदा करते हैं। इस शोभायात्रा में सबसे आगे यहां के सोमेश्वर महादेव की डोली गंगोत्री की ओर जाती है। इनके साथ सेना की बैंड और परंपरागत गाना बजाना भी होता है। रास्ते में जगह-जगह लोग और ITBP उनको प्रणाम करती है। शाम तक यह यात्रा बैरोघाटी पहुंचती है। जहां रात भर रहती है। गंगा की डोली सुबह-सुबह गंगोत्री पहुंच जाएगी जहां शुभ मुहूर्त के अनुसार पूजा के बाद मंदिर के कपाट खुलेंगे। मार्च से जून महीने तक मुखबा का मौसम बहुत सुहाना रहता है और पर्यटकों की धूम मची रहती है।
आस पास तपोवन ऑल गोमुख
1 किलोमीटर आगे गंगा के किनारे 648 मीटर की ऊंचाई पर है धराली जहां विरूयात सेब के पेड़ और राजमा की खेती दिखते हैं।
एक और बोनस
पास ही है गंगोत्री नेशनल पार्क जो 2390 स्क्वायर मीटर में बसा है: यह भारत का तीसरा सबसे बड़ा नेशनल पार्क है। यह पशु विहार चार धामों से गिरा हुई जगह है। जो आध्यात्मिकता और पौराणिक कथाओं में डूबा हुआ है।
यहां आने का सबसे सही समय वही है जो गंगोत्री के खुलने का है। अप्रैल से अक्टूबर। लंबे सुनहरे धूप से भरे दिन और जंगल सफारी या ट्रेकिंग के लिए बहुत मधुर। आप कई जानवरों और पक्षियों को देख सकते हैं। यहां 15 स्पीशीज के प्राणी है। स्नो लेपर्ड, स्नो एल्पाइन आईबेक्स जैसे कुछ। कई विलुप्त प्राणी जैसे ऊनी उड़ने वाली गिलहरी जो विलुप्त मानी जाती थी : काले भूरे भालू। या भरल और जंगली बिल्ली मानुल। पक्षियों से भी यह जगह भरा है। ऊपर जाते जाते यह पथरीले पहाड़ घने हरे-भरे जंगलों से परिवर्तित हो जाएंगे।
जरूर जाइए
जीप सफारी पर, रिवर राफ्टिंग, पैराग्लाइडिंग, हैंग ग्लाइडिंग, पर्वतारोहण, हाइकिंग, ट्रैकिंग या स्कीइंग: बहुत कुछ मर्जी आपकी। यहां की पहाड़ी इलाके नदी और झील इन सब एडवेंचर कार्यक्रम के लिए उत्तम है। सब कुछ है। भगवान से लेकर प्राकृतिक सौंदर्य और सबसे बड़ा आकर्षण यहां का गौमुख जहां से गंगा नदी शुरू होती है। जहां भी बहती है पूजी जाती है।
सुनने में लगता है जैसे बहुत सख्त होगा: परंतु आप तो देवी देवता को देखने आते हैं। उन्हें यहां रहना क्यों पसंद है जानना भी शायद भला लगेगा भक्तों को। या वापस आएंगे ?
वैसे पास ही नैलग्न घाटी भी है और नीति गांव भी जहां आप भारत के अंतिम चाय की दुकान में चाय पी सकते हैं।
केदारनाथ धाम समुद्र तल से 3584 ऊपर
केदारनाथ और बद्रीनाथ के रावल मुख्य पुरोहित परंपरागत दक्षिण भारत से आते हैं। केदारनाथ के रावल भीमशंकरलिन्ग वागीशा लिंगचार्ये कर्नाटक के दावनगिरि से हैं। केदारनाथ के मंदिर के गर्भग्रह में त्रिकोण आकार के लिंग की पूजा होती है। ऐसा कहते हैं कि जब पांच पांडव अपने भाइयों की हत्या करने के पाप का पश्चाताप करने शिव भगवान से मिलने आए। शिवजी उनसे नाराज थे और उन्हें उनसे मिलकर उनको आशीर्वाद देने की इच्छा नहीं थी। शिवजी एक बड़े से बैल का रूप लेकर धर्ती में समा गये। जहां-जहां इस बेल के अंग मिले उन स्थानों को केदार माना गया। उनका कूबड़ केदारनाथ में पाया गया। तब ही यहां का शिवलिंग कुछ इस तरह के आकार में है।
यह मंदिर जो आज प्रस्तुत है उसे आठवीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया जो भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं और पंच केदारों ओं का सबसे महत्वपूर्ण मंदिर है।
यहां का कपाट खुलने की प्रतिकिर्या केदार बाबा की उत्सव डोली से शुरू होती है जिसे ऊखीमठ के ओमकेश्वर मंदिर से केदारनाथ लाया जाता है। डोली के साथ रावल भीमशंकरलिन्ग और मुख्य पुजारी गंगाधर लिंगा और कई पुजारी वेदपथी आते हैं। डोली फाटा और गौरीकुंड में रुकते हुए केदारनाथ पहुंचता है। उनकी डोली के स्वागत में सेना कि बैंड से वैदिक मंत्रों के जाप और पारम्परिक गाना बजाना से की जाती है। हर साल बहुत सारे भक्त वहां प्रस्तुत होते हैं।
आदि शंकराचार्य की समाधी: संत और ज्ञानी जिन्होंने चार धाम की स्थापना की जिसके बाद समाधी में चले गए सिर्फ 32 वर्ष की उम्र में। आप उनकी समाधी देखने जा सकते हैं जो केदारनाथ के पास है और जो 2013 के बाढ़ में टूट गई थी लेकिन अब फिर से बन गई है।
केदारनाथ और मधमहेश्वर शीतकाल में ऊखीमठ जाते हैं।
हो जाए तीर्थ यात्रा के संग संग वाइल्डलाइफ टूरिज्म?
केदारनाथ नेशनल पार्क वही जगह है जहां विष्णु भगवान केदार फलवाले पेड़ों के बीच ध्यान में बिताते थे। यहां कई पवित्र मंदिर हैं। केदारनाथ नैशनल पार्क क्यों जाना: वैसे तो आप केदारनाथ धाम आए हैं तो आप आ ही गए हैं यहाँ।
यहां कस्तूरी म्रिग की रक्षण के लिए कई कार्यक्रम चल रहे हैं। कई पशु पक्षी और भी हैं। स्नो लेपर्ड, लंगूर, हिमालयन काले और भूरे रीच, चकोर, मोनाल, खालीज, तेंदुए वगैरा-वगैरा। … डी एफ ओ से पूछ कर आप मध्यमेश्वर के वन विभाग के कुटिया में भी रह सकते हैं। यहां के वन विभाग के कर्मचारी पैदल पेट्रोल पर शिवजी के पुत्र कार्तिकस्वामी मंदिर जाते हैं। आपको वहां से हिमालय का 360 डिग्री नजारा दिखेगा।
यहां 20 से 30 परिवार स्थाई रूप से बचते हैं। उनके रोज की जिंदगी की मांगे यहां के जंगलों पर भारी पड़ती है।
केदारनाथ नेशनल पार्क की एंट्री चोपटा है। वैसे तो केदारनाथ मंदिर सेंक्चुरी सीमा से बाहर है लेकिन वहां पहुंचने का रास्ता सेंक्चुरी से ही गुजरता है।
त्रियुगीनारायण मंदिर जहां शिव पार्वती का विवाह हुआ था। विष्णु और ब्रह्मा प्रस्तुत थे। वहां की अग्नि उस समय से जल्दी आ रही है। यहां पर डेस्टिनेशन शादियों का प्रयोजन होता है। कितने भाग्य की बात होगी ऐसी शादी।
बद्रीनाथ विशाल
वैसे तो वैदिक पुराणों में 1750 से 500 बीसी बद्रीनाथ का जिक्र होता है लेकिन कुछ अभिलेखों से पता चला कि यहां आठवीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म का मंदिर था जिसको आदि शंकराचार्य ने हिन्दू मन्दिर में परिवर्तित किया। अभी भी बद्रीनाथ मंदिर बौद्ध बनावट का लगता है। 814 से 820 शताब्दी तक आदि शंकराचार्य यहां और केदारनाथ में 6 महीने बारी-बारी रहते। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि शंकराचार्य परमार के राजा कनका पाल की सहायता से बौद्ध धर्म के सभी लोगों को खदेड़ कर भगा दिया और बद्रीनाथ माता।
“माना जाता है की बद्रीआश्रम एक ऐसी अनंत नगर है जहां विष्णु भगवान विराजमान है। जिसकी केवल दर्शन से मनुष्य को संसार के हर बंधन से मुक्ति मिल जाती है।”
स्कन्द पुराण में शिव जी ने अपने पुत्र कार्तिकेय से कहा।
बद्रीनाथ धाम घाटी के दोनों तरफ अलकनंदा नदी बहती है और घाटी के ऊपर खड़े हैं नर और नारायण पर्वत मानो दो प्रहरी। थोड़ी दूरी पर नीलकंठ की चोटी है। मुझे हैरानी होती है देखकर कि मंदिर के चारो ओर कितनी भीड़ है मकान है जो सर्दियों में बर्फ से ढकी रहती है।
बद्रीनाथ के बारे में बहुत अद्भुत कहानियां है एक यह भी है कि दोनों के बीच एक सुरंग है जिस से गुजर कर एक ही रावल आधे घंटे में दोनों जगह की पूजा कर पाते थे।
विष्णु की प्रतिमा गर्भ ग्रह में स्थापित है और दर्सन सभा मंडपा में होता है। बद्री विशाल भगवान की मूर्ति काले सालिग्राम की बनी हुई है कुछ खुशियों से भरी। कहते हैं यह प्रतिमा कई सालों तक नारद कुंड में पड़ी रह गई थी। प्रतिमा पद्मासन में है जो बोधिसत्व का सबसे चित्रित आसान होता है।
यह प्रतिमा नारद कुंड में क्यों पड़ी थी जब बौद्ध धर्म में तेजी से फैल रहा था तब बद्रीनाथ की मंदिर को भी बौद्ध में परिवर्तित कर दिया गया था। और विष्णु की प्रतिमा को नारद कुंड में बहा दिया गया। स्कंद पुरान में विस्तार से बताया गया है कि आदिगुरु को अष्ट खांड पर ध्यान करते समय उनको कैसे मिल गया। और फिर एक बार यहां हिंदू मंदिर बनाई गई। तीब्बत यहां से सीमा के पार ही तो है।
लोकल किस्तों में एक और कहानी है। बद्रीनाथ में इस घाटी को क्यों अपनाया।
विष्णु की पूजा पहले तिब्बत के थोलिंग मठ में होती थी। यह वैष्णव धर्म का बहुत महत्वपूर्ण तीर्थ स्थान था। लेकिन जैसे-जैसे समय गीता थोलिंग मठ में पशु बलिदान होने लगे और विष्णु भगवान भागकर नीति पास से होते हुए भारत आ गए और उनके पीछे आते हुए तिब्बती लोगों से बचने के लिए विष्णु याक के लंबे घने पूछों के पीछे छुप कर बच गए थे। भारत के लोग उनके आने से बहुत उत्साहित और प्रसन्न हुए। यह भी कहते हैं कि विष्णु प्रतिमा को एक पुजारी छुपते छुपाते ले आया था। बद्रीनाथ मंदिर है तो उत्तर हिंदुस्तान में लेकिन परंपरागत यहां का रावल दक्षिण भारत के केरल से होते है जो नंबुद्धिपद ब्राह्मण से चुने जाते हैं। सायद यह आदि शंकराचार्य का प्रभाव है।
भगवान की मूर्ति को सिर्फ रावल ही छू सकते हैं। वो तिहरी के राजा का प्रतिनिधि होता है। वही के राजघराने से प्रतिमा के स्नान के लिए तिल की तेल आती है।
बद्री विशाल शीतकाल में योगध्यान बद्री जाते हैं।
योगध्यान बद्री पांच पांडवों के पिता राजा पांडु हिरण के जोड़े को मारने के लिए यहाँ ध्यान और पश्चाताप किये थे। और इस स्थान पर ही मौत भी हुई थी। पांडव भी यहीं पैदा हुए थे। यह मंदिर पांडुकेश्वर में है जो गोविंदघाट में है। बद्रीविशाल के कपाट बंद करने का कार्यक्रम 5 दिन तक चलता है।
सबसे पहले गणेश की मंदिर बंद की जाती है। दूसरे दिन निकट के आदिकेश्वर मंदिर में प्रसाद के साथ भव्य पूजा की जाती है। तीसरे दिन वेद के मंत्रों के जाप के साथ सब धार्मिक पुस्तकों को बंद किया जाता है। चौथे दिन रावल ईश्वरचंद नम्बूद्री महिला के रूप में लक्ष्मी की मूर्ति को विष्णु के बाई और रख देते हैं। उसी समय विष्णु के सब आभूषण और अलंकरण उतार दिए जाते हैं। यह उनका निराकार रूप है। फिर पांचवें दिन भक्त जन मंदिर के सामने जमा होने लगते हैं। पूजा 4:30 प्रातः शुरू हो जाती है। उसी समय रावल मूर्ति के सब वस्त्र और फूल उतार देते हैं और माणा की महिलाओं की बनाई ऊनी वस्त्र पहनाते हैं। बाहर से जय बद्री विशाल की जय जय कार होती रहती है। भारतीय सेना की गढ़वाल स्काउटस जोशीमठ में तैनात रहती है। और पारंपरिक बाजे और संगीत गूंजते हैं। फिर बस एक छोटी सी कार्य रह जाती है। रावल अपने सर पर उद्धव की मूर्ति को उठाकर उल्टे पाँव नीचे जाते हैं। कई मूर्तियों को शीतकाल के लिए पांडुकेश्वर और जोशीमठ ले जाए जाते हैं। कपाट बंद हो जाते हैं। विष्णु की प्रमुख मूर्ति यही रहती है।
शिव भगवान को पशुपतिनाथ का नाम मिला है क्योंकि सिर्फ उनसे ही हर जीव को मोक्ष मिलती है।
पशुपति शिव के अवतार है। पशुओं के भगवान। नेपाल के राष्ट्रीय देवता। पशुपतिनाथ नेपाल के काठमांडू के सुंदर घाटी से इतने खुश हुए कि एक हिरण बनकर वही रहने लगे।
देखे कितने जीव जंतु पशुपतिनाथ के आसपास मिलते हैं हमें। शुरू करते हैं केदारनाथ मंदिर के सामने बैठे हुए काले पत्थर से बने नंदी महाराज जी ने सब भक्तजन पूजते हैं।
मनुष्यों की मनोकामना से या दिव्य प्रभाव से: केदारनाथ वाइल्डलाइफ सेंचुरी ऐसी जगह है जो तरह-तरह के जानवरों और पक्षियों से भरा है। कुछ समय से यहां हमारे रॉयल बंगाल टाइगर भी आ गए हैं। इसका मैंने अपनी पहली ब्लॉक में विस्तार से लिखा है।
फिर आते हैं कुत्तों पर: मंदिर में कई भुटिया कुत्ते 12 महीने रहते हैं। लगता नहीं उन्हें वहां रहने से किसी को आपत्ति है। शीतकाल में यहां मेंटेनेंस का काम करने वाले लोगों के साथ ही बन जाते हैं। जब मैं अपने गोल्डन रिटरीश्वर को अपने साथ टुंगनाथ बाबा के मंदिर ले गई थी तो भी किसी ने आपत्ति नहीं जताई थी। भगवान भैरव को शिवजी का एक अवतार भी माना जाता है। जो काले कुत्ते के रूप में देखा जाता है। रूद्र भैरव और वीरभद्र को शिवजी के भयंकर रूप माने जाते हैं। रूद्र को स्वापती कहते हैं। यानी कि कुत्तों का गुरु।
फिर गौमाता : अब प्लास्टिक पैकेज के नहीं गाय के ताजे दूध से भगवान शिव का अभिषेक होगा। विनोद शुक्ला तीर्थयात्री पुजारी है। उन्होंने केदारनाथ मंदिर के करीब गौ माता के लिए एक घर बनाया है। जिसके दूध से शिवलिंग को स्नान कराया जाएगा। यहां का दूध यात्रियों को भी उपलब्ध होगा। करीब 12000 फुट के ठंड से बचाने गाय को लिए खास व्यवस्था की गई है। कंबल बिछाने के लिए उठाने के लिए। उनके लिए दूर से चारा भी लाया जाता है। रोज बाबा को ताजा दूध मिलता रहता है।
केदारनाथ का प्रतिबिंब है। कई सालों से बेचारे बेरोजगार खच्चरो को और उनके मालिकों को फिर से बहुत काम मिलेगा। … खच्चर वास्तव में बहुत काम की चीज है। घोड़ो से कम खाते हैं पहाड़ों पर चलने में माहिर। नर्म व्यवहार के और दिमाग से भी तेज। लेकिन उनके मल मूत्र से सारे रास्ते गंदे और बदबूदार बन जाते हैं।
केदारनाथ धाम के निकट गौरीकुंड में एक बायोगैस और कंपोस्ट प्लांट बनाया जा रहा है जिससे खच्चरों के मल का उपयोग होगा। यह खाद आसपास के किसानों को भी दिया जाएगा।
लेकिन: सुना गया है की खच्चरों को डायपर पहनाए जाएंगे। तो यह माल जो पूरे रास्तों में सब को परेशान करता है आप डायपर में रहेगा जिससे अलग तरह से फेंका जाएगा। लेकिन मुझे समझ नहीं आ रहा है कि बायोगैस के लिए कैसे बटोरा जाएगा और मुझे यह भय भी है भी है कि डायपर को कहां और कैसे फेका जाएगा स्वच्छता तो माना लेकिन पर्यावरण का क्या।
अब आते हैं हिमालय के ऊंट यानी याक पर:
1962 में हिंदी चीनी युद्ध के बाद याको का एक झुण्ड तिब्बत से सीमा पार करते हुए हिंदुस्तान आ गया। भारतीय सेना ने इन्हें दिस्ट्रिक अधिकारी को सौंप दिया और तबसे चमोली में एनिमल हसबेंडरी विभाग ने उनकी देख रेख की है। शीतकाल में उन्हें सुराइथोला भेज दिया जाता है और गर्मियों में वे द्रोणागिरी के ऊंचाइयों में रहते हैं। याक सिर्फ बर्फ खाकर 20 दिन तक रह सकते हैं तब ही इन्हें हिमालय का ऊंट कहा जाता है। अब बद्रीनाथ में यह याक तीर्थयात्रियों का मन बहलायेंगे। शायद उन पर सैर भी करें … सिक्किम में मुझे रैंबो नामक एक याक से प्यार हो गया जिसने मुझे सैर कराइए।
बद्रीनाथ के याद शीतकाल में स्कीइंग रिसौर्ट ओला में रहेंगे।
सोचा जाए तो याक यहां के लिए नए प्राणी नहीं है। ना वास्तविकता में : ना ही दंतकथाओं में।
चीन के थोलिंगमठ से याक बद्रीनाथ आते रहते थे। और भगवान बद्रीनाथ को याक के बालों से बनाएं झुब्बो से ही हवा किया जाता है।
स्वर्ग में प्रवेश करने से पहले पांडवों का अंतिम स्थान बद्रीनाथ से कुछ मील दूर माणा है। यहां वे याक पे सवार आये। आप भी जा सकते हैं माणा : भारत के अंतिम चाय की दुकान पर बैठ कर चाय पी सकते हैं।
यह एक पुरानी वाटर कलर चित्र है जो एक कलाकार ने बनाया था : इसमें बद्रीनाथ मंदिर में कुछ याक दिखते हैं। जिससे ये जाना जाता है कि यहां उस समय भी याक थे।
आपको इससे ज्यादा कई जगह मिल जाएगी। यह मेरे कुछ ख्याल है।
आप यूट्यूब में मेरी पहली तीर्थ यात्रा तुंगनाथ बाबा के मंदिर पर मेरे संग आए थे। मेरा 30 साल पुराना ड्राइवर कन्हैया, मेरी नर्स पिंकी , मेरा मित्र मदन राजन और मेरा कुत्ता स्वामी। आज तक इसके सिवाय मैं एक ही तीर्थ यात्रा की. लाता गांव के नंदा देवी के मंदिर। और भी कर पाऊं यह मेरी उम्मीद है।
जाते-जाते मेरी कुछ चित्र कुछ यात्राएं उत्तराखंड के इन महान पवित्र पर्वतों में।
शिव परिवार कैलाश से वापस आते हुए शीतकाल में केदारनाथ में जानवरों की खेलकूद।