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शुभी के प्यारे पहाडी

https://azpinup.com/कुछ समय तक मुझे घर बैठे बैठे यह ब्लौग लिखना पडेगा या उन विषयों के बारे में जो उत्तराखन्ड में मैंने पहले खुद अनुभव किये थे | माफ किजियेगा बस मास्क निकल जाने तक!

इस बार मैं एक अजीब सी घटना पर लिखना चाह रही हूं। मैंने चिडियों के माइग्रेशन के बारे में तो सुना था लेकिन यह क्या ? कुछ सालों से उत्तराखण्ड के रायल बन्गाल टाइगर्स पहाडों की ओर चल पडे हैं | 12000 फीट तक पहुन्च चुके हैं।


क्या हमारे शेर हमसे ऊब कर नया ठिकाना ढून्ड रहे हैं?

उत्तराखन्ड के निचले क्षेत्रों से कुछ रायल बन्गाल टाइगर्स चढते चढते अस्कोट और केदारनाथ वन्यजीव अभयारण्यों के जन्गलों तक क्यों पहुन्च गये ?

ये कोई भूले भटके राही नहीं हैं… मेरी कल्पना में उभर आता है: एक रायल बन्गाल टाइगर पहाड चढ रहा हैं और चढे जा रहा है : नदियों में तैरते हुए जन्गलों में घुस रहा है | जब ठन्ड लगी तो कुछ आराम कर लेता है शायद कोई छोटे से जानवर का शिकार कर लेता | इस नाश्ते के बाद पाइन के पेड़ों के नीचे घान्स और पाइन कोन के बिछौने पर सो लेता है | फिर गोधुली बेला में उन्चाई की ओर चढने लगता है | टाईगर एक शान्ध्यकालीन या कृपेस्कुलार प्राणी है यानिकी वो सूर्यास्त के बाद और सूर्यादय के पहले फुर्तीला होता है।

यहां के लोकल लोगों ने उसे देखा भी | क्या वो अकेला था? या उसकी शेरनी और बच्चे साथ आये हैं … क्या वो गरजा? शेर बब्बरों की जाती में सबसे बड़े होते हैं टाइगर । और लोगों ने जब बताया की उन्होंने शर जैसे एक बड़े जानवर को देखा है तो वनविभाग अधिकारियों ने मान लिया की उन्होंने तेन्दुा को देखा होगा। लेकिन भैन्स और बकरी पर हमले हुए तो इन पहाड़ों में भी टाइगर हो सकता है मान जाने को वे मजबूर हो गये।

2016 से उत्तराखान्ड में यह उन्ची पहाड़ियों में बसने वाले शेर… हाई औल्टिटीयूड टाईगर्स…हैं और इनपर देहरादून के भारतीय वन्यजीवन संस्थान भा | व | स (Wildlife Institute of India) में कई तरह के कारण और परिणाम पर विचार किये जा रहे हैं | सबको इन्तजार है इनकी निष्कर्श पर ।

“Where, when the sun is melting in his heat,
The reeking tygers find a cool retreat;
Bask in the sedges, lose the sultry beam
And wanton with their shadows in the stream.” A very old poem

वनविभाग अधिकारियों ने एक रायल बेन्गाल टाइगर को भारतीय हिमालय में 12000 फीट के असाधरण उन्चाई पर देखा। पारिस्थितिकी वैज्ञानिकों ने कहा यह जलवायु परिवर्तन climate change का बहुत चिन्ताजनक चिन्ह है। केदारनाथ वन्यजीव अभयारण्य में करीब 5 दर्जन कैमरा ट्रैप जगह जगह लगाये गये | सबसे बेशकीमती छवी थी मद्यमहेश्वर की | यह भी केदारनाथ वन्यजीव अभयारण्य का हिस्सा है।

एक टाइगर को बर्फ गूस्त इलाके की तरह जाते हुए देख कर सब वन विभाग आधिकारी हैरान हैं। कैमरा ट्रैप में कई जानवर दिखे जैसे कस्तूरी मिंग, भालू, लोमडी वगैरह लेकिन 3400 मीटर पर टाइगर दुर्लभ था। इस मामले ने वाइल्डलाइफ वैज्ञानिको को एक नई दिशा दी है। 

चमोली और रूद्रप्रयाग जिलों में स्तिथ केदारनाथ वन्यजीव अभयारण्य के वन विभाग आधिकारी कैमरा ट्रैप के चित्रों से बेहद खुश हैं। यहां तक की एक चित्र बिलकुल उस गुफा के पास है जिसे मोदी गुफा कहते हैं जहां प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने रात गुजारी थी। 

2016 में उत्तराखन्ड वन विभाग के एक दस्तावेज में यह लिखा गया की उन्होंने 10470 फीट पर अस्कोटके पहाड़ों में एक टाइगर को घूमते हुए देखा है जो सबसे ऊन्चा उदाहरण है। टाइगर 3000 से 4000 फीट पर पाये जाते हैं तो उत्तराखन्ड के ऊन्चाइयों में दिखाई देना सन्केत है की हमारे शेरों में ऐसी दृढता है की वो विभिन्न विभिन्न जगहों में बस जाते हैं । दुनिया में कई तरह के शेर हुआ करते थे : कुछ विलुप्त हो गये। जैसे कैस्पियन शेर जो अस्ट्रेलिया में कुछ सदियों पहले तक पाया जाता था।

लेकिन यह चमत्कारी जीव एशिया के हर तरह के जन्गल, दलदल, मैनग्रोव या फार ईस्ट रशिया के की ठन्दक में प्रस्तुत हैं : एक समय ऐसा था की इस दुनिया में कम से कम एक लाख शेर थे। आज शायद सिर्फ 3500 बचे हैं : भारत और दक्षिण पूर्वी एशियई देशों में या रशिया में : जहां लगातर उनका सर्ववाइवल खतरे में रहता है : पोचिन्ग या उनका प्राकृतिक वास लुप्त होने से | रशिया के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन बहुत कुछ कर रहे हैं साईबीरियन टाइगर को बचाने के लिये : उनकी कुज्या नामक शेरनी के बारे में फिर कभी सुनाउन्गी । – दक्षिण पूर्वी एशिया में सुमत्रन टाइगर वहां के घने जन्गलों और वहां के पतले रास्तों से गुजरने के लिये या शिकार करने

के लिये वो छोटे होते है | उसके बदन के रन्ग भी वहां के पत्तों मै समा जाते हैं। आमुर या साईबीरियन टाइगर के बाल फर और चमडा एशियन भाइयों के मुकाबले बहुत मोटा होता है। यहां के ठन्ड से बचने के लिये भालू गुफाओं में सोते रहते हैं | लेकिन यहां के टाइगर छाती तक बर्फ में यन्स जाते हुए भी घूमते रहते हैं । माइनस 40 डिगरी में बेचारे शिकार की खोज में चलते चलते कभी कभी बर्फीले क्रिस्टल के नोक से पर उनके पन्जों के नर्म पैड कट जाते है और खून के धब्बों से यह पता चलता है | साइबीरियन टाइगर का फर भूरा और नारन्गी रन्गों से उभर उठता है जो वहां के पतझड़ के रन्गों में घुल मिल जाता है। तो ऐसे होते हैं हमारे टाइगर : जहां उन्हें ले जाये उनकी किस्मत वो वहीं अपने को वैसे ही ढाल लेते है और हर तरह से अपनी परिस्थितियों पर अपने झन्डे गाढ देते हैं | चाहे वो गरम भीगे ट्रोपिकल जन्गल हों या ट्रोपिकल घ्रासलैन्ड या पहाडी अल्पाइन जन्गल … या अब जैसा हमें बताया जा रहा है : टाइगर बन गये हैं हाई औल्टिटूड प्राणी ! जहां दूसरे तरह के बाघ बघीरों का वास है। जैसे हिम तेन्दुआ … स्नो लेपड | दुर्भाग्य से टाइगर से ज्यादा इवोल्वड और शातिर जानवर है : मनुष्य। जिनके लिये हमेशा से टाइगर के लिये भय और आदर बसा है | उसपर विजय पाने की धुन में उसे खत्म करने का हर इन्तजाम हो रहे हैं : पोचिन्ग या गैर कानूनी शिकार और उनके वास को छीनना … लेकिन हमें पूरी उम्मीद है की टाइगर की सर्ववाइवल इन्सटिन्क्ट और दुनिया भर के कान्सर्वशेशनिस्ट आनेवाली पीढियों के लिये इस जन्गल के राजा को सुरक्षित रखेगे।

अस्कोट और केदारनाथ दोनो नैशनल पार्क में गुलदार, उज्गल कैट, सिवेट, बार्किन्ग डीयर, भालू, सीरो और गोराल से भरा है। दोनों में कस्तुरी मृग को खास स्थान दिया गया है जो सिर्फ राष्ट्र पशु ही नहीं बहुत एन्डेन्जर्ड भी हैं।

Photograph-of-tigress-from-Askot Landscape-Uttarakhand

अस्कोट मैं एक शेरनी अब वो अस्कोट और केदारनाथ पहुन्च गए हैं तो मुझे बड़ी चिन्ता है ? शायद वे मेरे प्रिय स्नो लेपर्ड को ना घायल कर दें

या उन्हें मन्गोलिया तक न खदेड दें। __ या फिर यह अभी अभी आये पहाडी को अगर उत्तराखन्ड का एन्डेन्जर्ड राष्ट्रीय पशु कस्तूरी मिग का चस्का लग जाये तो क्या होगा।

कस्तूरी मृग (Musk deer) एशिया विशेषकर हिमालय में मिलने वाले सम ऊंगली खुरदार प्राणियों का एक जीववैज्ञानिक वंश है | इसको वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन ऐक्ट 1972 के अन्तरगत स्केडियूल 1 में एन्डेन्जई में रखा गय है। है | 1972 में केदारनाथ को कस्तूरी मृग सैन्कचुयरी बनाया गया | ये 2000 मीतर की उन्चाई पर पाये जाते हैं | इनके सीन्ग सर पर नहीं होते बल्कि उनके मुंह से बाहर तक दिखते हैं।

माना की मैं वैज्ञानिक नहीं लेकिन मेरी चिन्ता जायज है की रायल बन्गाल टाइगिर कस्तूरी मिंग को ना खाने लगे : कुछ ही दूर भूटान के राष्ट्रिय पशु टाकिन को वहां के हाई ओल्टिटूड टाइगर खाने लगे है… टाइगर के मल का परिक्षण करने पर जानकारी मिली की टाइगर के भोजन में टाकिन था | टाकिन बी बहुत एन्डेन्जर्ड हैं।

 
Black to goldish coat and permanent death stare, not so many animals can stand the aura of a takin

कालेसे सुन्हरे रन्ग तक | ऐसी खतरनाक टकटकी निगाह की कम ही जानवर टाकिन से आन्ख मिला पाते हैं या सामना कर पाते हैं । टाकिन (Burdorcas Tavicolor) भूटान का राष्ट्रीय पशु है और वहां के धर्म, इतिहास

और दन्त कथाओंसे जुड़ा हुआ है । पौराणिक कथाओं से पता चलता है की 15वीं शताब्दी में एक तिब्बती सन्त डुक्पा कुनले जिसे दिव्य दिवाना के नाम से जाना जाता है यहां इस अदभुत जानवर का निर्माण किायेद्धो । टाकिन को कैटल चमौस या नू बकरी बोला जाता है जो फैमिली कैपिने पैर्वी हिमालय का वासी होता है । यह 4 तरह के होते हैं मिश्मी टाकिन, गोल्डन टाकिन, टिबटन टाकिन और भूटानी टाकिन

खास बात यह भी है की अरुणाचल प्रदेश के मिश्मी पहाडों में और उस इलाकों में चित्तीदार हिरण, साम्बर या गौर नहीं पाये जाते हैं जो टाइगर खाते हैं | और मिश्मी टाकिन यहां भी टाइगर का भोजन बन गया है | यह मिश्मी टाकिन कुछ कुछ बकरी कुर कुछ हिरण हैं और बहुत एन्डेन्जरई है जो सिर्फ पुर्वोत्तर भारत, म्यांमार या चीन में ही पाया जाता है। –

फिर अगर टाइगर स्नो लेपर्ड का सबसे मनपसन्द शिकार भरल या ब्लू शीप खाने लगे तो…? पीटर मथीसन भारत और नेपाल के पहाड़ों में स्नो लेपर्ड की खोज की अनुभवों पर अपने मशहूर पुस्तक “स्नो लेपर्ड में लिखा की ब्लू शीप न भेड है ना नीला… लेकिन एक भी स्नो लेपर्ड नहीं देखा | जब लागों ने पूछा : “आपको स्नो लेपर्ड नहीं दिखा?” मथीसन के उत्तर ने मेरा दिल जीत लिया : “नहीं कितना अच्छा हुआ ना?” ऐसा होता है जानवरों का सच्चा प्रेमी ।

कुछ सालों से उत्तराखन्ड में शेरों की गिनती बढ़ रही है | सिर्फ कर्नाटक के पीछे है जहां 406 हैं यहां 340 | 2014 के देश के आन्कडेा से पता चला भारत का राष्ट्रीय जानवर की गिनती 2226 है यानिकी चार सालों में 30% बढा । एक वनजीव विशेषज्ञ ने चिन्ता जताई की यह उन्ची पर्वत के शेरों की प्रस्तुती वन विभाग के लिये उनकी सुरक्षा में एक और चुनौती न खडी हो जाये।

कुछ वैज्ञानिक 12000 फीट पर शेर का दिखना ग्लोबल वार्मिन्ग का सन्केत मानते हैं और भविष्य में बुरा असर हो सकता है : दूसरे जानवर भी ऊपर की ओर आने लगें | पहले से उपस्तिथ ऊपरी हिमालय के जानवरों का क्षति हो । दिल्ली मे National Tiger Conservation Authority (NTCA) ने कह दिया है कि भारत के 4 प्रदेशों के उन्चाइयों में टाइगर मौजूद हैं।

क्या दक्षिण एशिया के ऊपरी हिमालय टाइगर का नया निवास बन गया है?

अब इन पहाडी क्षेत्रों में स्पेशल स्टैन्डर्ड प्रोसीजर Special Standard Operating Procedure (SOP) बनाये जायेन्गे Wildlife Institute of India (WII), के सन्ग ।

वैसे तो पीढी दर पीढ से हिमालय की उन्चाईयों में शरों की प्रस्तुती के किस्से बोले जातें हैं : सेन्सस ना हुआ हो लेकिन यहां शेर की गरजन सुनाई दी है। उसके पग चिन्ह दिखाई दिये हैं और सदियों से वहां के लोग और वन विभाग के अधिकारियों ने भी कुछ देखा है। जी वी गोपी दिबन्ग वैली के सर्वे करवाते हैं। उन्होंने कहा था यहां के प्राचीन समय से इदू मिश्मी जनजाती में शेर भाई की तरह मान्यवर हैं जिसको मारना पाप माना जाता है।

डी एफ ओ डेचेन लाचुन्नापा ने बताया सिक्किम में इसे आबा बोम्पू यानिकी मामा माना जाता है।

जिम कौरबेट की लेखों से भी पता चलता है की 19 सवी और बीसवी सदि में भी कुमाउं और नेपाल की पहाडियों में शेर पाये गये थे | बीस साल पहले सिक्किम के चरवाहे खिटुक भूटीया रिनजिन्ग रौन्चुक और लाचुन्ग नौ— ने भी बताया शेर वहां हैं।

दिसम्बर 2012 में दिबन्ग वैली में मिश्मी लोगों को शेर के बच्चे मिले और the Wildlife Institute of India (WII), Dehradun और National Tiger Conservation Authority (NTCA) ने वहां कैमरा ट्रैप लगाये तो 11 शेर मिले | वहां के बर्फीले पहाडों में जीरो से कम ठन्डमें एक रोयल बन्गाल टाइगर घूम रहा था |

शायद दुनिया एक छोटे से हिमालय देश भूटान से कुछ सीख सकता है

भूटान ने ग्लोबल टाइगर दिवस जुलाई को अपनी पहली टाइगर की गिनती के बाद बताया की वहां 103 टाइगर हैं | यह तो हमारे सुन्दरबन के मैन्ग्रोव टाईगर रिजर्व से भी ज्यादा हैं ।

2010 में BBC ने 4000 मीटर की ऊन्चाई पर रहनेवाले शेरों पर दुनिया का सबसे पहला विडियों लिया। उनकी documentary series Lost Land of the Tigers. Available on Youtube.

भूटान ने अपना पहला पर्यावरण सरक्षण योजना बनाया जिससे अपने देश को दुनिया के सामने लाया। उनके इन सफलताओं के सुख सन्केत से वे अपनी खुशहाली भी मापते हैं ।

शायद यह शेरों का पर्वतों में पुन: प्रस्तुति कई तरह से अच्छा सकेंत हो जैसे शेरों की आबादी बढना |

और ऐसे सवाल : जवाब की खोज में दूरस्थ प्राकृतिक वास के लिये डा: पूणव चन्चानी Lead of WWF-India’s Tiger Conservation Programme, अपने टीम के साथ निकले | वे जुड़े हैं ऐसे कई परियोजनाओं से “Status of Tiger Habitats in High Altitude Ecosystems in Bhutan, India & Nepal”, across the four Indian states of Uttarakhand, Sikkim, Bengal, and Arunachal Pradesh. Jointly implemented by the Global Tiger Forum (GTF), National Tiger Conservation Authority of India (NTCA), the State Forest Departments of four selected states, and Wildlife Institute of India (WII) और उनका काम था इन उन्ची पहाडियों में पाये जानेवाले टाइगर और अन्य मैमल की जानकारी हासिल करना | कैमरा तैप के अलावा चरवाहों और लोकल जानकारी लोगों से पूछताछ से हर तरह की जानकारी प्राप्त करना | उद्देश्य था इन पहाडों के हर दुशपाप्य जीव की उपस्तिथी का प्रमाण।

टीम टाइगर के इस खोज का विवरण बहुत ही दिलचस्प है: पूणव कैमरा तैप लगाते हुए केदारनाथ मस्क डीयर सैन्कचुएरी से लोहत रेन्ज (approx. 1400 feet) से मदमहेश्वर रेन्ज (approx. 13,000 feet) से गुजरे. इन बर्फीले ऐल्पाइन मैदानों से गुजरे जहां बान्झ और बुरहान्स के इस के पेड़ों के बीच मोनाल और कोकलैस चिडिये बगयालों में उड रहीं थीं और बुरहान्स के जन्गलें में हिमालरी तहर का झुन्ड गुजर रहा था | उत्सकसे गोरल और शर्मिले कस्तुरी मृग यहांतक की दुर्लभ हिमालीय सीरो भी नजर आये। टीम जैसे जैसे और ऊन्चाई पर चढा तो वतावरण शान्त और विभिन्न हाने लगा | यहीं उनका खुले आस्मान के नीचे उनका कैम्प बना।

5°C से कम और लगातार बर्फ की बरसात … फिर भी टीम चढती गई अपने बैकपैक, कैमरा ट्रैप, बैटरी से लदे | रिज पहुन्चे तो बारिश और बर्फीली हवाओं का सामना करना पड़ा।

डाः प्रणव चन्चानी ने कहा की टाइगरों का हिमालय की पहाडों में पाया जाना कोई नई बात नहीं है। यह पहाड तराई के जन्गलों से जुड़े हैं और पुरातन काल से यहां बहुत तरह के जीव हैं | घने जन्गल, उनके विभिन्न शिकार, और नरकेन्द्रित दबाव ना के बराबर : ऐसी जगह टाइगरों के बढने और बसने के लिये उचित निवास हो सकता है। “डा: चन्चानी ने बताया।

फिर ठोस प्रमाण मिलने की उम्मीद से 2 कैमरा ट्रैप लगाये गए ? अब देखना था कि इन कठिन परिस्थितियें में आ गया है : रौयल बन्गाल टाइगर |

और केदारनाथ से 42 दिनों की काम के पश्चात बहुत उम्मीद लेकर टीम वापस आई। देहरादून में डाटा देखा और उनको याद आया की वहां के वनविभाग अधिकारी कितना मेहनत करते हैं उत्तराखण्ड के पर्या वरण के लिये हर दिन वैसी कठिन हालात में ।

शुरू के डाटा में बहुत से पशु दिखे : 12000 फीट पर हिमालयी ताहिर, कस्तुरी मृग, साम्बर, और हिमालयी काले भालू | और फिर अचानक लगभग 13000 फीट पर एक बर्फीली ऐल्पाइन मैदान में बान्झ और बुरहान्स के पेड़ों के नीचेसे आधी रात को एक नौजवान शेर चल जा रहा था।

सोन्चने से स्वप्न जैसा लगता है। हमारे रोयल बन्गाल टाइगर 13000 फीट पर जीने लगे हैं। (With thanks to IANS and Suparna Roy Hindustan Times, Dehradun)



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जाते जाते मेरे कुछ भावनायें और चित्रकारियां जिनमें टाइगर बर्फ का मजा ले रहे हैं जैसे मैं भी लेती हूं |

  • हम जो भी आज और अब करेन्गे उसका प्रभाव आनेवाले दस हजार सालों तक पडेगा । 
  • कुछ कन्सर्वशन मौडेल शेर पर मल्टिीनैशनल कोऔपरेशन पर आधारित बनाये जायेगे जैसे ग्लोबल स्नो लेपर्ड और इकोस्टिम पोटेक्शन और जैगुअर 2030 एजेन्डा हैं।
  • उत्तराखन्ड में High Altitude टाइगर प्रोजेक्ट की योजना बन रही है।
  • ऊन्ची पहाडियों में टाइगर का आना और बसने का एक कारण शायद यह भी हो सकता है की टाइगरों की
  • गिनती बढ़ रही है।
  • लेकिन सरकार के बहुत सारे डेवलेपमेन्ट और पर्याटक योजनायें पहाडी टाइगर को पीछे ना करदे इनके लिये।


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